आजादी के बाद पैसठ साल के सियासी सफर में जिले ने भी तरह तरह के कई मुकाम देखे और कई रिकार्ड भी बना लिये है
आज देश में स्वतंत्रता दिवस की 65 वीं साल गिरह मनायी जा रही हैं। आजादी के बाद इन 65 सालों में देश की राजनीति ने बहुत बदलाव देखे। लेकिन देश में हर बड़ा परिवर्तन बैलेट के माध्यम से ही हुआ। भारतवर्ष में प्रजातंत्र की जड़े मजबूत हुयीं हैं। लेकिन जनता के बीच राष्ट्रीय पार्टियों की पकड़ कम होने तथा क्षेत्रीय दलों के उभरने से राष्ट्रीय स्तर पर प्रजातांत्रिक प्राथमिकताओं में फर्क आया है। पिछले पंद्रह बीस सालों से गठबंधन की सरकारे देश चला रहीं हैं। इन पैंसठ सालों के सियासी सफर में जिले ने भी बहुत से मुकाम देखे हैं। वैसे तो सियासी रूप से यह जिला आजादी के समय से ही अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता हैं। केन्द्र और प्रदेश सरकार में जिले के जनप्रतिनिधियों ने भागीदारी की हैं। आजादी के पहले बनी अंतरिम सरकार से लेकर अभी तक कभी ऐसा नहीं हुआ था कि सत्ता दल का विधायक जिले से चुना गया हो और मंत्री ना बना हो। पहले गैर कांग्रेसी मंत्री का रिकार्ड स्व. पं. महेश प्रसाद शुक्ला के नाम दर्ज है जो कि राज्य मंत्री बने थे। 2003 की उमा सरकार में पहले गैर कांग्रेसी केबिनेट मंत्री डॉ. ढ़ालसिंह बिसेन बने थे। लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के राज में शिव की नगरी सिवनी के मंत्री विहीन रहने का रिकार्ड बन गया हैं।
देश में हर परिवर्तन बैलेट से हुआ बुलैट से नहीं -आज देश में स्वतंत्रता दिवस की 65 वीं साल गिरह मनायी जा रही हैं। आजादी के बाद इन 65 सालों में देश की राजनीति ने बहुत बदलाव देखे। लेकिन देश में हर बड़ा परिवर्तन बैलेट के माध्यम से ही हुआ। चाहे वह जयप्रकाश जी की सम्पूर्ण का्रंति के बाद जनता सरकार के रूप में हुआ हो, या फिर ढ़ाई साल बाद ही इंदिरा गांधी की वापसी हो या फिर 415 सांसदों के ऐतिहासिक बहुमत वाली कांग्रेस की राजीव गांधी की सरकार को नकारा गया हो या फिर कांग्रेस के नरसिंहा राव की सरकार के बाद अटल जी सरकार का बनना हो या फिर दो बार से कांग्रेस के नेतृत्व वाले यू.पी.ए. सरकार का आना हो सभी कुछ जनता ने अपने वोटों से ही किया जबकि भारत के साथ ही आजाद होने वाले पाकिस्तान में ना केवल अधिकांश परिवर्तन बुलैट से हुये और सालों में वह विभाजित भी हुआ और बांगलादेश का उदय हुआ। भारतवर्ष में प्रजातंत्र की जड़े मजबूत हुयीं हैं। पंचायत से लेकर लोकसभा के सभी बदलाव प्रजातंत्र के जरिये ही सफलता पूर्वक हुये हैं। लेकिन जनता के बीच राष्ट्रीय पार्टियों की पकड़ कम होने तथा क्षेत्रीय दलों के उभरने से राष्ट्रीय स्तर पर प्रजातांत्रिक प्राथमिकताओं में फर्क आया है और पिछले पंद्रह बीस सालों से गठबंधन की सरकारे देश चला रहीं हैं। इस कारण कई बार राष्ट्रीय हितों पर क्षेत्रीय हित हावी हो रहें हैं जो कि भारत जैसे एक प्रगतिशील देश के लिये चिता का विषय हैं। इसका निदान होना जरूरी हैं। इसके लिये आवयक है कि या तो राष्ट्रीय पार्टियां अपना जनाधार बढ़ायें या फिर क्षेत्रीय पार्टियां अपना नजरिया बदलें और राष्ट्रीय हितो पर क्षेत्रीय हितों को हॉवी ना होनें दे या फिर संविधान में संशोधन कर कुछ ऐसी व्यवस्था की जाये कि देश में राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त राजनैतिक दल ही लोकसभा का चुनाव लड़ने की पात्रता रखें। जाति,भाषा और क्षेत्रीयता पर आधारित राजनैतिक दलों का राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ता प्रभाव देश के व्यापक हितों के लिये एक चिंता का विषय बनता जा रहा हैं। वैसे इस बात से कई लोगों के विचार अलग हो सकते हैं और हमारा भी कहने का यह आशय नहीं हैं कि क्षेत्रीय दलों राष्ट्रीय हितो की चिंता नही रहती लेकिन यह जरूर रहता हैं अपने प्रभाव क्षेत्र के हितो को प्राथमिकता देना उनकी राजनैतिक मजबूरी रहती हैं। अंर्तराज्यीय मुद्दों के मामलों में भी जो सोचएक राष्ट्रीय पार्टी की होती हैं वह एक क्षेत्रीय दल की नहीं होती। क्योंकि यदि मुद्दा क्षेत्रीय दल के अपने प्रदेश का होता हैं तो वह संबंधित दूसरे प्रदेश के हितो को स्वीेकार ना करना उसकी राजनैतिक मजबूरी होती हैं।इसलिये वर्तमान व्यवस्था में कुछ सुधार होना आज समय की मांग बन गयी है। जिससे राष्ट्रीय हितों पर क्षेत्रीय हित हावी ना हो सकें और देश तेजी से प्रगति के पथ पर आगे बढ़ सके।
भरपूर प्रतिनिधित्व मिला जिले है को-इन पैंसठ सालों के सियासी सफर में जिले ने भी बहुत से मुकाम देखे हैं। वैसे तो सियासी रूप से यह जिला आजादी के समय से ही अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता हैं। आजादी की लड़ाई के कई महान सेनानी सिवनी की जेल में रहे हैं। महान क्रांतिकारी पीर पगारो, नेताजी सुभाष चंद बोस,रविशंकर शुक्ला, पं. द्वारका प्रसाद मिश्र सहित कई नेता इसी जेल में रहे हैं। देश आजाद होने के पहले बनी अंतरिम सरकार में जिले के डी.के.मेहता मंत्री मंड़ल में शामिल किये गये थे। आजादी के बाद से तो देश में वैसे भी कांग्रेस का वर्चस्व रहा था उसी तरह जिले में भी कांग्रेस का बोल बाला था। जिले के राजनैतिक परिदृश्य में पहला परिवर्तन 1962 के विधानसभा चुनाव में आया जब राम राज्य परिषद ने जिले के तीनों सामान्य विधानसभा क्षेत्रों सिवनी,केवलारी और बरघाट में कांग्रेस केा हरा दिया था। लेकिन उसके बाद हुये 1967 के अगले विधानसभा चुनाव में ही कांग्रेस ने फिर पांचों सीटों को जीत लिया था और यह सिलसिला लगातार 1990 तक चला। और तो और 1977 के पहले गैर कांग्रेसी दौर में जनता पार्टी की आंधीं में भी जिले में पांचों विधानसभा सीटें जीत कर कांग्रेस ने संपूर्ण उत्तर भारत में एक कीर्तिमान कायम किया था। 1990 की रामलहर में 1962 की तरह तीनों सामान्य सीटें तो कांग्रेस हार गयी लेकिन दोनों आदिवासी सीटों पर उसका कब्जा बरकरार रहा। 1993 और 1998 के विस चुनाव में बरघाट और सिवनी से भाजपा और शेष तीन सीटों से कांग्रेस ने जीत हासिल की थी। लेकिन 2003 की उमा भारती की लहर में कांग्रेस के सिर्फ हरवंश सिंह ही जिले में अकेले जीते थे और पहली आर दोनो आदिवासी सीटों पर कांग्रेस को हारना पड़ा था। पिछले 2008 के चुनाव में भी केवलारी में कांग्रेस के हरवंश सिंह के अलावा शेष तीनों सीटों पर भाजपा ने जीत ली थीं। जिले के सांसद रहे पं. गार्गीशंकर मिश्रा और कु. विमला वर्मा ने केन्द्रीय मंत्री मंड़ल में प्रतिनिधित्व किया था। प्रदेश सरकार में तो जिले के एक से अधिक विधायक ही अधिकांश समय मंत्री मंड़ल में रहे हैं। पहले डी.के.मेहता और वसंतराव उइके,फिर वसंतराव उइके और कु. विमला वर्मा, फिर उर्मिला सिंेह और हरवंश सिंह मंत्री रहें हैं। सन 1993 से 1998 के दिग्गी सरकार के दौरान तो दो मंत्रियों के अलावा आदिवासी वर्ग के शोभाराम भलावी और गीता सिंह,अनुचूचित जाति के इंद्रेश गजभिये,पिछड़ा वर्ग के पुसऊलाल राहंगडाले और नेहा सिंह भी विभिन्न निगमों और आयोगों में मंत्री का दर्जा प्राप्त लाल बत्तीधारी नेता रहें हैं। आज भी जिले के इकलौते कांग्रेस विधायक विधानसभा में उपाध्यक्ष हैं।
लोस और नपा में भी जीत रही है भाजपा-लोकसभा चुनावों में जिले के विधानसभा क्षेत्र छिंदवाड़ा और जबलपुर संसदीय क्षेत्र में शामिल थे। आजादी के बाद से 1975 तक कांग्रेस के ही सांसद रहें। पहले गैर कांग्रेसी सांसद के रूप में उप चुनाव में शरद यादव जीते थे जब जबलपुर क्षेत्र में जिले का लखनादौन विस क्षेत्र शामिल था। सन 1977 में सिवनी संसदीय क्षेत्र अस्तित्व में आया जिसके पहले सांसद स्व. निर्मलचंद्र जैन बने। फिर 80 से 90 तक स्व. गार्गीशंकर मिश्र रहे जिन्हें कमल चुनाव चिन्ह धारी भाजपा के बागी प्रहलाद पटेल ने हराया। फिर 91 और 98 में विमला वर्मा जीतीं। 1999 से लगातार भाजपा के रामनरेश त्रिपाठी और नीता पटेरिया चुनाव जीते। नये परिसीमन में जिले के सिवनी और बरघाट क्षेत्र बालाघाट में जहां से भाजपा के के.डी.देशमुख और केवलारी और लखनादौनक्षेत्र मंड़ला में शामिल हो गये जहां से कांग्रेस के बसोरीसिंह मसराम चुनाव जीते हैं। इसी तरह 1994 से लेकर आज तक कांग्रेस नगरपालिका सिवनी का चुनाव भी नहीं जीत पायी हैं और लगातार तीन चुनाव हार चुकी हैं। पिछले दो बार से भाजपा चुनाव जीत रही हैं।
जिले को मंत्रीविहीन रखने का रिकार्ड शिवराज के नाम-आजादी के पहले बनी अंतरिम सरकार से लेकर अभी तक कभी ऐसा नहीं हुआ था कि सत्ता दल का विधायक जिले से चुना गया हो और मंत्री ना बना हो। 1977 में पहली बार जिला मंत्री विहीन रहा था क्योंकि जनता पार्टी का कोई भी विधायक जिले से नहीं जता पाया था। 1990 में बनने वाली भाजपा सरकार के पटवा मंत्री मंड़ल में पहले गैर कांग्रेसी मंत्री का रिकार्ड स्व. पं. महेश प्रसाद शुक्ला के नाम दर्ज है जो कि राज्य मंत्री बने थे। 2003 की उमा सरकार में पहले गैर कांग्रेसी केबिनेट मंत्री डॉ. ढ़ालसिंह बिसेन बने थे जो कि बाबूलाल गौर के मंत्रीमंड़ल मेंभी शामिल थे। लेकिन जब पहली बार शिवराज सिंह चौहान मुख्य मंत्री बने तो भाजपा के तीन विधायकों डॉ. बिसेन, नरेश दिवाकर और शशि ठाकुर में से कोई भी मंत्री नहीं बन पाया। चौहान की दूसरी पारी में भी शिव की नगरी सिवनी मंत्री विहीन ही रह गयी जबकि नीता पटेरिया,शशि ठाकुर और कमल मर्सकोले भाजपा के विधायक हैं। और तो और भाजपा ने चार सांसदों को विधान सभा का चुनाव लड़ाया था जिसमें नीता पटेरिया को छोड़ कर शेष सभी तीनों सांसद रहें नेता कबीना मंत्री हैं। आजादी के बाद के 65 सालों के सियासी सफर का एक सियाह मुकाम यह भी है। हालांकि शिवराज ने नरेश दिवाकर और डॉ. बिसेन को लाल बत्ती देकर कबीना मंत्री का दर्जा जरूर दिया हैं।
और अंत में-जिले के सियासी हालात आज ऐसे हैं कि कांग्रेस और भाजपा आलाकमान में जिले के किसी भी नेता की सीधी कोई एप्रोच नहीं हैं। इसका खामियाजा जिला भुगत रहा हैं। लोकसभा चली गयी, एक विधानसभा चली,बड़ी रेल लाइन आयी नहीं,पेंच परियोजना बनी नहीं और फोरलेन का मामला भी अटका पड़ा हैं। ना जाने यह भुगतमान जिले को और कब तक भुगतना पड़ेगा? “मुसाफिर“
परिवर्तनों के लिये राजनैतिक विकल्प मिलने वाले देश की संसद को सड़क से संचालित करने की नाकाम कोशश हुयी
आज पूरा देश स्वतंत्रता दिवस की 65 वीं वर्षगांठ मना रहा हैं। एक प्रजातांत्रिक देश होने के नाते इन 65 सालों की राजनैतिक यात्रा के दौरान कई परिवर्तन और पड़ाव देखें हैं। देश में पहला राजनैतिक परिवर्तन जयप्रकाश जी की संपूर्ण क्रांति के बाद हुआ और जनता पार्टी की दो तिहायी बहुमत वाली सरकार ने देश की सत्ता संभाली लेकिन इंदिरा हटाओ के मुद्दे पर एक हुये विभिन्न विचारधाराओं वाले राजनैतिक दल ढ़ाई साल में ही तितर बितर हो गये और इंदिरा गांधी की वापसी हो गयी। फिर वी.पी.सिंह के द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाये गये आंदोलन और राम मंदिर के मुद्दे पर देश में दूसरी बार राजनैतिक पविर्तन हुआ और कांग्रेस के 415 सांसदों के ऐतिहासिक बहुमत वाली राजीव गांधी की सरकार धराशायी हो गयी। वी.पी.सिंह के नेतृत्व में बनने वाली सरकार में विचारधारा में एक दूसरे के धुर विरोधी वाम दल और भाजपा सरकार में शामिल थे। लेकिन इसका भी वही हश्र हुआ और 1991 में राजीव गांधी की चुनाव के दौरान हुयी हत्या के बाद केन्द्र में कांग्रेस के स्व. पी.वी.नरसिंहा राव के नेतृत्व में सरकार बनी। 1996 और 1998 के खंड़ित जनादेश के कारण अस्थिरता का वातावरण रहा और 1999 में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग गठबंधन की अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी और देश में गठबंधन की राजनीति की शुरुआत हुयी। सन 2004 और 2009 में कांग्रेस के नेतृत्व में यू.पी.ए. की सरकार डॉ. मनमोहन सिंह की अगुवायी मे चल रही हैं। यू.पी.ए. के दूसरे कार्यकाल में देश में उजागर हुये लगातार घोटालों और केन्द्रीय मंत्री सहित बड़े बड़े नेताओं और अधिकारियों की जेल यात्राओं के बाद देश में एक बार फिर भ्रष्टाचार और विदेशों में जमा कालेधन को लेकर आंदोलन जारी है। समाजसेवी अन्ना हजारे और योग गुरू बाबा रामदेव के नेतृत्व में हो रहे इन आंदोलनों में निर्वाचित सदन के भ्रष्ट और आपाधिक स्वरूप को भी मुद्दा बनाया गया हैं। लेकन यहां एक विचारणीय प्रश्न यह भी है कि यदि ऐसा है तो क्या इसके लिये सिर्फ सदन में बैठे सदस्य ही जवाबदार हैं? मेरे विचार से नहीं। पहले तो वे राजनैतिक दल दोषी हैं जो ऐसे नेताओं को प्रत्याशी बनाते हैं और अंततः हम मतदाता जो कि ऐसे उम्मीदवारों को अपना वोट देकर उन्हें सदन का सदस्य चुन लेते हैं। अपराधियों के खौफ और धन की चकाचौंध हमें प्रभावित करती रहेगी तो बदलाव की उम्मीद करना बेमानी होगा। यदि ऐसे नेताओं को नकारा नहीं गया तो वही सब कुछ चलता रहेगा जो चल रहा हैं। सिर्फ चलाने वाले बदल सकतें है। इन आंदोलनों में बिना राजनैतिक विकल्प दिये निर्वाचित सदन को सड़क से संचालित करने की नाकाम कोशिश भी गयी। टीम अन्ना ने तो पार्टी बनाने की घोषणा के साथ अपना अनशन खत्म कर दिया है और बाबा रामदेव के मंच पर राजग नेताओं की उपस्थिति में राजनीति का दौर भी खूब चला। आने वाले साल में सरकार,विपक्ष और आंदोलन चलाने वाले अन्ना और बाबा भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने के सपने को साकार करने की दिशा में कारगर कदम उठायें, यही स्वतंत्रता दिवस पर हमारी शुभकामनायें हैं।
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