राष्ट्रवाद पर हावी होते क्षेत्रीयतावाद के खतरे से बचने के उपाय तलाशना जरूरी
भारतीय राजनीति का इन दिनो संक्रमण काल चल रहा हैं। सन 1996 से प्रारंभ हुये गठबंधन की राजनीति का दौर जारी हैं। केन्द्र में सरकार इन गठबंधनों की ही बन रही हैं। इन सोलह सालों में देश हित में हुआ तो बहुत कुछ है लेकिन गठबंधन की मजबूरियों के कारण बहुत कुछ ऐसा भी है जो नहीं हो पाया हैं।
देश में 7 राष्ट्रीय एवं 45 क्षेत्रीय मान्यता प्राप्त राजनैतिक दल हैं। राष्ट्रीय पार्टियों में कांग्रेस और भाजपा के अलावा बहुजन समाज पार्टी, सी.पी.आई.,सी.पी.एम.,राष्ट्रवादी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी शामिल हैं।
कांग्रेस हमेशा से मास बेस पार्टी रही हैं लेकिन पिछले कुछ समय से क्षेत्रीय दलों द्वारा उसके वोट बैंक में सेध लगाने के कारण जनाधार कमजोर हुआ हैं। परंतु राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस आज भी सबसे बड़ा राजनैतिक दल हैं। भाजपा केडर बेस पार्टी हैं लेकिन उसका प्रभाव अभी भी दक्षिण भारत में नहीं जम पाया हैं। दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में भाजपा ने सरकार तो बनायी लेकिन जिस तरह से सरकार चल रही है उससे सबसे अलग दिखने का भाजपा का दावा कमजोर ही हुआ हैं। वाम दलों सहित राकपा,सपा और बसपा कहने को तो राष्ट्रीय दल हैं लेकिन वास्तविकता यह हैं कि इनका राजनैतिक अस्तित्व भी क्षेत्रीय दलो से कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार यह कहने में कोई संकोच नही हैं कि इन दिनों राष्ट्रीय राजनैतिक दलों के प्रभामंड़ल में जो कमी आयी हैं वही गठबंधन की राजनीति प्रारंभ होने का मूल कारण हैं।
मान्यता प्राप्त 45 क्षेत्रीय दलों में डी.एम.के.,ए.आई.ए.डी.एम.के.,तृणमूल कांग्रेस,बीजू जनता दल,जनता दल यू.,आर.जे.डी.,तेलगू देशम पार्टी,शिव सेना और टी.आर.एस. जैसे कई राजनैतिक दल हैं जो कि गठबंधन की सरकारों के गठन और पतन में महत्वपूर्ण राजनैतिक भूमिका निभाते रहें हैं। इसका दंश देश ने देखा और भोगा है फिर चाहे वो भाजपा के नेतृत्व वाली एन.डी.ए. सरकार हो या कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. सरकार हो।
अंर्तराष्ट्रीय और अंर्तराज्यीय मुद्दों पर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों की सोच में फर्क रहता है। जहां एक ओर राष्ट्रीय पार्टियों की सोच राष्ट्रीय स्तर की होती हैं। वहीं क्षेत्रीय पार्टियों की प्राथमिकता उनके प्रभाव क्षेत्र तक सीमित होकर रह जातीं हैं। सोच का यही अंतर सरकार के कामकाज पर निर्णायक असर डालता हैं। गठबंधन की सरकारों के 16 सालों के काम काज को देखते हुये अब यह समय की मांग हैं कि इनसे बचने के लिये उपायों पर विचार किया जाये।
मेरे विचार से संविधान में कुछ ऐसा प्रावधान किया जाना क्या न्याय संगत नहीं होगा कि चुनाव आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त क्षेत्रीय राजनैतिक दलों को पंचायत से लेकर विधानसभा चुनाव लडने की पात्रता दी जाये और यदि किसी गठबंधन के साथ ऐसे क्षेत्रीय दल लोकसभा का चुनाव लड़ते हैं तो गठबंधन का नेतृत्व करने वाली राष्ट्रीय पार्टी के चुनाव चिन्ह पर ही उन्हें चुनाव लड़ने की पात्रता दी जाये? ऐसा करने से कम से कम दल बदल विरोधी कानून के प्रावधानों के तहत सरकार की स्थिरता पर तो कोई विपरीत असर नहीं पड़ेगा। मेरे इस विचार का हो सकता है कि इस आधार पर विरोध भी हो कि यह सुझाव प्रजातंत्र के मूल सिद्धान्तों के खिलाफ है। लेकिन बीते दिनों क्षेत्रीय दलों और उनके नेताओं की भूमिेका और सौदे बाजी ने आज यह सोचने को तो जरूर मजबूर कर दिया हैं कि ऐसे उपाय किये जाना जरूरी हैं जो कि बढ़ते हुये क्षेत्रीयतावाद और कमजोर पड़ते राष्ट्रवाद के बीच समन्वय बना सके। अन्यथा देश की अखंड़ता और एकता पर बढ़ते हुये क्षेत्रीयतावाद के खतरे से इंकार नहीं किया जा सकता हैं।
समय समय पर देश में इस बात पर भी बहस होती रही हैं कि राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू होना चाहिये या नहीं ? क्या देश एक बार फिर ऐसे दौर से नहीं गुजर रहा हैं कि जिसमें राष्ट्रपति शासन प्रणाली देश हित में हैं या नही? इस पर विचार होना चाहिये। मेरे विचार से क्षेत्रीयतावाद के बढ़ते हुये प्रभाव को देखते हुये और उसे रोकने के लिये यह भी एक कारगर उपाय हो सकता हैं जिसमें देश का हर मतदाता सीधे राष्ट्रपति का चुनाव कर पांच साल के लिये एक स्थायी सरकार तो चुन सकता है।
देश की एकता और अखंड़ता पर मंड़राते क्षेत्रीयतावाद के खतरे से बचने के और भी उपाय हो सकते हैं लेकिन यह कहने में कोई संकोच नहीं हैं कि अब यह समय की मांग है कि इनसे बचने के कारगर उपाय तलाश कराना देश हित में अत्यंत आवश्यक हैं।
आशुतोष वर्मा
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